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कहीं भी शहर में कुंज-ए-अमाँ नहीं मिलता | शाही शायरी
kahin bhi shahr mein kunj-e-aman nahin milta

ग़ज़ल

कहीं भी शहर में कुंज-ए-अमाँ नहीं मिलता

मुमताज़ अतहर

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कहीं भी शहर में कुंज-ए-अमाँ नहीं मिलता
कि आज राब्ता-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं मिलता

ये सोचता हूँ कहाँ से हो इब्तिदा, आख़िर
कि हर्फ़ कोई पस-ए-दास्ताँ नहीं मिलता

समय की लहर में ग़र्क़ाब हो रहा हूँ मैं
कहीं पे नाव कहीं बादबाँ नहीं मिलता

तमाम उम्र की ला-हासिली अज़ाब हुई
वो मिल गया है तो अपना निशाँ नहीं मिलता

बता रही है बगूलों की हम-रही मुझ को
पस-ए-ग़ुबार कोई कारवाँ नहीं मिलता

मिरे ख़िलाफ़ शहादत है मो'तबर सब की
मगर किसी से किसी का बयाँ नहीं मिलता

ये कैसी साअतें सर पर हैं आज-कल 'अतहर'
ज़मीं मिली है तो अब आसमाँ नहीं मिलता