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कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई | शाही शायरी
kahin bhi saya nahin kis taraf chale koi

ग़ज़ल

कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई

शहज़ाद अहमद

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कहीं भी साया नहीं किस तरफ़ चले कोई
दरख़्त काट गया है हरे-भरे कोई

अजीब रुत है ज़बाँ ज़ाइक़े से है महरूम
तमाम शहर ही चुप हो तो क्या करे कोई

हमारे शहर में है वो गुरेज़ का आलम
चराग़ भी न जलाए चराग़ से कोई

ये ज़िंदगी है सफ़र मुंजमिद समुंदर का
वहीं पे शक़ हो ज़मीं जिस जगह रुके कोई

पलट कर आ नहीं सकते गए हुए लम्हे
तमाम उम्र भी अब जागता रहे कोई

मिसाल-ए-अक्स मुक़य्यद हिसार-ए-ज़ात में हूँ
वो मौज हूँ जिसे रस्ता न मिल सके कोई

फिर इस के बाद बिखर जाऊँ रेत की सूरत
बस एक बार मुझे टूट कर मिले कोई

हुज़ूर-ए-हुस्न ये दिल कासा-ए-गदाई है
हूँ वो फ़क़ीर जिसे भीक भी न दे कोई

सवाल उस ने भी कोई नहीं किया 'शहज़ाद'
जवाब बन न पड़े जिस के सामने कोई