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कहाँ थे शब इधर देखो हया क्यूँ है निगाहों में | शाही शायरी
kahan the shab idhar dekho haya kyun hai nigahon mein

ग़ज़ल

कहाँ थे शब इधर देखो हया क्यूँ है निगाहों में

अब्दुल रहमान रासिख़

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कहाँ थे शब इधर देखो हया क्यूँ है निगाहों में
अगर मंज़ूर है रख लो मुझे झूटे गवाहों में

मुवह्हिद वो हूँ गर मैं सिर्र-ए-वहदत कान में कह दूँ
मुअज़्ज़िन बुत-कदे में हों बरहमन ख़ानक़ाहों में

नज़र मुझ से चुरा कर मुँह छुपा कर कहते जाते हैं
कि ये चोरी भी लिक्खी जाएगी तेरे गुनाहों में

सियहकारी मिरी बन जाए रश्क-ए-गेसू-ए-ख़ूबाँ
क़यामत को छुपा बैठा रहूँ यारब गुनाहों में

वही 'रासिख़' तो हैं कल तक जो मयख़ाने के दरबाँ थे
बने बैठे हैं हज़रत चार दिन से दीं-पनाहों में