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कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का | शाही शायरी
kahan talash karun ab ufuq kahani ka

ग़ज़ल

कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का
नज़र के सामने मंज़र है बे-करानी का

नदी के दोनों तरफ़ सारी कश्तियाँ गुम थीं
बहुत ही तेज़ था अब के नशा रवानी का

मैं क्यूँ न डूबते मंज़र के साथ डूब ही जाऊँ
ये शाम और समुंदर उदास पानी का

परिंदे पहली उड़ानों के ब'अद लौट आए
लपक उठा कोई एहसास राएगानी का

मैं डर रहा हूँ हवा में कहीं बिखर ही जाए
ये फूल फूल सा लम्हा तिरी निशानी का

वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
मगर मिरे लिए दफ़्तर खुला मआनी का