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कहाँ किसी का बनाया हुआ बनाते हैं | शाही शायरी
kahan kisi ka banaya hua banate hain

ग़ज़ल

कहाँ किसी का बनाया हुआ बनाते हैं

ख़ुर्शीद तलब

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कहाँ किसी का बनाया हुआ बनाते हैं
नया बनाते हैं जब हम नया बनाते हैं

किसी का नक़्श बनाते हैं लौह-ए-दिल पर हम
किसी का अक्स सर-ए-आईना बनाते हैं

नया बनाने की हसरत कभी नहीं मरती
नए सिरे से नए को नया बनाते हैं

मैं इक ज़मीन हूँ अमन-ओ-अम्मां की मुतलाशी
मिरे अज़ीज़ मुझे कर्बला बनाते हैं

हमारी दश्त-नवर्दी को गुमरही न समझ
भटकने वाले नया रास्ता बनाते हैं

कहीं भी जाएँ किसी शहर में सुकूनत हो
हम अपनी तर्ज़ की आब ओ हवा बनाते हैं

ज़मीनें तंग हुई जा रही हैं दिल की तरह
हम अब मकान नहीं मक़बरा बनाते हैं

''तलब'' जो लोग क़नाअत-पसंद होते हैं
वो ज़िंदगी को कहाँ मसअला बनाते हैं