कहाँ खो गई रूह की रौशनी
बता मेरी रातों की आवारगी
मैं जब लम्हे लम्हे का रस पी चुका
तो कुछ और जागी मिरी तिश्नगी
अगर घर से निकलूँ तो फिर तेज़ धूप
मगर घर में डसती हुई तीरगी
ग़मों पे तबस्सुम की डाली नक़ाब
तो होने लगी और बे-पर्दगी
मगर जागना अपनी क़िस्मत में था
बुलाती रही नींद की जल-परी
जो तामीर की कुंज-ए-तन्हाई में
वो दीवार अपने ही सर पर गिरी
हुई बारिश-ए-संग उस शहर में
हमें भी मिला हक़्क़-ए-हम-साएगी
गुज़ारी है कितनों ने इस तरह उम्र
बिल-अक़सात करते रहे ख़ुद-कुशी
कोई वक़्त बतला कि तुझ से मिलूँ
मिरी दौड़ती भागती ज़िंदगी
जिन्हें साथ चलना हो चलते रहें
घड़ी वक़्त की किस की ख़ातिर रुकी
में जीता तो पाई किसी से न दाद
में हारा तो घर पर बड़ी भीड़ थी
हुआ हम पे अब जिन का साया हराम
थी उन बादलों से कभी दोस्ती
मुझे ये अंधेरे निगल जाएँगे
कहाँ है तू ऐ मेरे सूरज-मुखी
निकाले गए इस के मअनी हज़ार
अजब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी
ग़ज़ल
कहाँ खो गई रूह की रौशनी
ख़लील-उर-रहमान आज़मी