कहाँ हूँ मैं कि मिरा कोई आश्ना भी नहीं
किसी का ज़िक्र तो क्या घर में आइना भी नहीं
रहे ख़मोश तो टूटा न रिश्ता-ए-उम्मीद
पुकारते तो ख़राबों में कोई था भी नहीं
तिरी सदा पे तो सदियाँ भी लौट आती हैं
मुझे बला में कुछ ऐसा शिकस्ता-पा भी नहीं
ये और बात कि नक़्श-ए-क़दम दिखाई न दें
मगर वो अर्सा-ए-दिल से अभी गया भी नहीं
इस ए'तिराफ़ से रस घुल रहा है कानों में
वो ए'तिराफ़ जो उस ने अभी किया भी नहीं
जिस एक चीज़ से तेरा फ़िराक़ आसाँ है
वो एक चीज़ तिरी याद के सिवा भी नहीं
मिरा भरम हैं तग़ाफ़ुल-शआ'रियाँ तेरी
तू पूछ ले तो मिरा कोई मुद्दआ' भी नहीं
मुसालहत भी नहीं है सरिश्त में अपनी
मगर किसी से तसादुम का हौसला भी नहीं
न जाने कब न रहें हम हमें ग़नीमत जान
हयात-ओ-मौत में कुछ ऐसा फ़ासला भी नहीं
मआल-ए-कार-ए-क़नाअत है सो अभी से सही
वगर्ना तूल-ए-तमन्ना की इंतिहा भी नहीं
ग़ज़ल
कहाँ हूँ मैं कि मिरा कोई आश्ना भी नहीं
ख़ुर्शीद रिज़वी