कहाँ हम रहे फिर कहाँ दिल रहेगा
इसी तरह गर तू मुक़ाबिल रहेगा
खुली जब गिरह बंद-ए-हस्ती की तुझ से
तो उक़्दा कोई फिर न मुश्किल रहेगा
दिल-ए-ख़ल्क़ में तुख़्म एहसाँ के बो ले
यही किश्त-ए-दुनिया का हासिल रहेगा
हिजाब-ए-ख़ुदी उठ गया जब कि दिल से
तो पर्दा कोई फिर न हाएल रहेगा
न पहुँचेगा मक़्सद को कम-हिम्मती से
जो सालिक तलबगार-ए-मंज़िल रहेगा
न होगा तू आगाह इरफ़ान-ए-हक़ से
गर अपनी हक़ीक़त से ग़ाफ़िल रहेगा
ख़फ़ा मत हो 'बेदार' अंदेशा क्या है
मिला गर न वो आज कल मिल रहेगा
ग़ज़ल
कहाँ हम रहे फिर कहाँ दिल रहेगा
मीर मोहम्मदी बेदार