कहाँ हम और कहाँ अब शराब-ख़ाना-ए-इश्क़
न वो दिमाग़ न वो दिल न वो ज़माना-ए-इश्क़
हुआ है शहर-ए-ख़मोशाँ में जब गुज़र मेरा
सुना किया हूँ लब-ए-गोर से फ़साना-ए-इश्क़
ख़याल-ए-रुख़ पे है मौक़ूफ़ दिल की आबादी
कभी न गुल हो इलाही चराग़-ए-ख़ाना-ए-इश्क़
भरे हुए हैं हसीनान-ए-सीम-तन दिल में
ख़ुदा करे कभी ख़ाली न हो ख़ज़ाना-ए-इश्क़
गई दिमाग़ में जिस के किया असीर उसे
अजब कमंद है बू-ए-शराब-ख़ाना-ए-इश्क़
कहीं है दाग़ का मज़मूँ कहीं है सोज़ का ज़िक्र
सुनो न तुम कि बहुत गर्म है फ़साना-ए-इश्क़
ग़लत है साहब-ए-दौलत को गर ग़नी कहिए
ग़नी वो है जिसे अल्लाह दे ख़ज़ाना-ए-इश्क़
जो बहर-ए-ग़म में गिरा हाथ धो के जीने से
उसी के हाथ भी आया दुर-ए-यगाना-ए-इश्क़
तमाम उम्र इसी सहरा की ख़ाक छानी है
जो तुम सुनो तो सुनाऊँ कोई फ़साना-ए-इश्क़
बने हैं जब से वो यूसुफ़ हर एक गाहक है
खुला हुआ है यहाँ भी दर-ए-ख़ज़ाना-ए-इश्क़
किसी पे दिल का था आना कि बे-ख़ुदी छाई
समंद-ए-होश को आफ़त है ताज़ियाना-ए-इश्क़
जब उन के दिल में ये आती है कुछ सुनें नाले
तो मुझ से कहते हैं छेड़ो कोई तराना-ए-इश्क़
चमक के दाग़ ये कहता है दिल की आहों से
हवा से बुझ नहीं सकता चराग़-ए-ख़ाना-ए-इश्क़
ये जानिए कि लगी हाथ दौलत-ए-कौनैन
मिले जो ख़िर्मन-ए-हस्ती से एक दाना-ए-इश्क़
यहाँ 'अयाज़' है आक़ा ग़ुलाम है 'महमूद'
'जलील' क्या मैं कहूँ तुम से कारख़ाना-ए-इश्क़

ग़ज़ल
कहाँ हम और कहाँ अब शराब-ख़ाना-ए-इश्क़
जलील मानिकपूरी