कहाँ फ़ुर्क़त में है दिलदार उठना बैठना चलना
तेरे आशिक़ को है दुश्वार उठना बैठना चलना
तुम्हारा वहशी-ए-लाग़र न ठहरा शहर में दम भर
पसंद आया सर-ए-कोहसार उठना बैठना चलना
फ़क़ीराना किसी के ज़ेर-ए-साए हम भी रहते हैं
हमेशा है पस-ए-दीवार उठना बैठना चलना
कहें क्या दोस्तो इस इश्क़ ने आजिज़ किया हम को
गिराँ होता है अब हर बार उठना बैठना चलना
'शबाब' इस बे-ख़ुदी में मश्ग़ला है बस यही बाक़ी
मियान-ए-कूचा-ए-दिलदार उठना बैठना चलना
ग़ज़ल
कहाँ फ़ुर्क़त में है दिलदार उठना बैठना चलना
शबाब