कहाँ दिन रात में रक्खा हुआ हूँ
अजब हालात में रक्खा हुआ हूँ
तअल्लुक़ ही नहीं है जिन से मेरा
मैं उन ख़दशात में रक्खा हुआ हूँ
कभी आता नहीं था हाथ अपने
अब अपने हाथ में रक्खा हुआ हूँ
ज़रा भी रह नहीं सकता हूँ जिन में
मैं उन जज़्बात में रक्खा हुआ हूँ
जलाए किस तरह ये धूप मुझ को
कहीं बरसात में रक्खा हुआ हूँ
ख़मोशी कह रही है 'शाज़' उस की
मैं उस की बात में रक्खा हुआ हूँ
ग़ज़ल
कहाँ दिन रात में रक्खा हुआ हूँ
ज़करिय़ा शाज़