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कफ़-ए-ख़िज़ाँ पे खिला मैं इस ए'तिबार के साथ | शाही शायरी
kaf-e-KHizan pe khila main is etibar ke sath

ग़ज़ल

कफ़-ए-ख़िज़ाँ पे खिला मैं इस ए'तिबार के साथ

आबिद सयाल

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कफ़-ए-ख़िज़ाँ पे खिला मैं इस ए'तिबार के साथ
कि हर नुमू का तअल्लुक़ नहीं बहार के साथ

वो एक ख़मोश परिंदा शजर के साथ रहा
चहकने वाले गए बाद-ए-साज़गार के साथ

खुले दरों से तलबगार ख़्वाब-गाहें मगर
मैं जागता रहा इक ख़्वाब-हम-कनार के साथ

कली खिली है सर-ए-शाख़ और ये कहती है
कि कोई देखे तमन्ना-ए-ख़ुश-गवार के साथ

वो मुझ को वो न लगा देखता सिसकता हुआ
निगाह-ए-ज़र्द के साथ और दिल-ए-फ़िगार के साथ

मदार-ए-वक़्त वो गुंजाइशें ज़रा फिर से
कि पड़ रहें किसी दीवार-ए-साया-दार के साथ