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कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना | शाही शायरी
kaDe hain hijr ke lamhat us se kah dena

ग़ज़ल

कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना

शहबाज़ ख़्वाजा

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कड़े हैं हिज्र के लम्हात उस से कह देना
बिखर रही है मिरी ज़ात उस से कह देना

हवा-ए-मौसम-ए-ग़म उस के शहर जाए तो
मिरे दुखों की कोई बात उस से कह देना

ये वहशतें ये उदासी ये रतजगों के अज़ाब
उसी की हैं ये इनायात उस से कह देना

वो दिल की बाज़ी जहाँ मुझ से जीतना चाहे
मैं मान लूँगा वहीं मात उस से कह देना

वफ़ा की राह में मैं आज भी अकेला हूँ
कोई नहीं है मिरे साथ उस से कह देना

जहाँ पे अद्ल की ज़ंजीर नस्ब है 'शहबाज़'
वहीं कटे हैं मिरे हात उस से कह देना