कड़कती धूप में साया
अँधेरों में उजाला है
कोई सानी नहीं उस का
मुझे जिस माँ ने पाला है
महज़ इक सीप थी मैं तो
गुहर उस ने निकाला है
हमेशा मुश्किलों में तो
इसी दिल को सँभाला है
मुझे जो मो'तबर कर दे
मिरी माँ का हवाला है
मुझे 'मुमताज़' करने को
दुआओं का वो हाला है
ग़ज़ल
कड़कती धूप में साया
मुमताज़ मालिक