कचोके दिल को लगाता हुआ सा कुछ तो है
ये रात रात जगाता हुआ सा कुछ तो है
करिश्मा ये तिरे अल्फ़ाज़ का नहीं फिर भी
फ़ज़ा में ज़हर उगाता हुआ सा कुछ तो है
अगर ये मौत का साया नहीं तो फिर क्या है
क़दम क़दम पे बुलाता हुआ सा कुछ तो है
न जाग उठा हो कहीं बीती उम्र का लम्हा
रगों में शोर मचाता हुआ सा कुछ तो है
तअल्लुक़ात की ख़ुशबू कि रिश्ता-ए-माज़ी
तुम्हारी बज़्म से जाता हुआ सा कुछ तो है
इक एहतिमाम-ए-ख़ुसूसी के बावजूद 'ख़ुमार'
ये फ़ासलों को बढ़ाता हुआ सा कुछ तो है
ग़ज़ल
कचोके दिल को लगाता हुआ सा कुछ तो है
सुलेमान ख़ुमार