EN اردو
कभी ज़मीं पे कभी आसमाँ पे छाए जा | शाही शायरी
kabhi zamin pe kabhi aasman pe chhae ja

ग़ज़ल

कभी ज़मीं पे कभी आसमाँ पे छाए जा

हफ़ीज़ जालंधरी

;

कभी ज़मीं पे कभी आसमाँ पे छाए जा
उजाड़ने के लिए बस्तियाँ बसाए जा

ख़िज़र का साथ दिए जा क़दम बढ़ाए जा
फ़रेब खाए हुए का फ़रेब खाए जा

तिरी नज़र में सितारे हैं ऐ मिरे प्यारे
उड़ाए जा तह-ए-अफ़्लाक ख़ाक उड़ाए जा

नहीं इताब-ए-ज़माना ख़िताब के क़ाबिल
तिरा जवाब यही है कि मुस्कुराए जा

अनाड़ियों से तुझे खेलना पड़ा ऐ दोस्त
सुझा सुझा के नई चाल मात खाए जा

शराब ख़ुम से दिए जा नशा तबस्सुम से
कभी नज़र से कभी जाम से पिलाए जा