कभी यहाँ लिए हुए कभी वहाँ लिए हुए
फिरी है जुस्तुजू तिरी कहाँ कहाँ लिए हुए
ज़मीन-ए-दिल की ख़ाक है सद-आसमाँ लिए हुए
तनज़्ज़ुलात-ए-इश्क़ में तरक़्क़ियाँ लिए हुए
दिल ओ जिगर लिए हुए मता-ए-जाँ लिए हुए
किसी का नावक-ए-नज़र तलाशियाँ लिए हुए
उसी गली से आई है शमीम-ए-ज़ुल्फ़ लाई है
नसीम-ए-सुब्ह आई है तसल्लियाँ लिए हुए
मिरे ग़म-ए-निहाँ में है नवेद-ए-इशरत-आफ़रीं
बहार ही बहार है मिरी ख़िज़ाँ लिए हुए
हमारी आह के शरर हमीं को फूँकने लगे
हवा के झोंके आए साथ बिजलियाँ लिए हुए
तिरी गली में माह-रू पड़े हुए हैं चार-सू
तमाम ज़र्रे ख़ाक के तजल्लियाँ लिए हुए
न क़ुर्ब-ए-गुल की ताब थी न हिज्र-ए-गुल में चैन था
चमन चमन फिरे हम अपना आशियाँ लिए हुए
निगाह-ए-अहल-ए-राज़ में हक़ीक़त ओ मजाज़ में
हमारी बे-निशानियाँ तिरा निशाँ लिए हुए
उठे हैं हश्र में फ़िदा-ए-कू-ए-यार इस तरह
जबीं में सज्दे दिल में याद-ए-आस्ताँ लिए हुए
न दिल मिलेगा 'बेदम' और न दिल की हसरतें कहीं
कि गुम हुआ है यूसुफ़ अपना कारवाँ लिए हुए
ग़ज़ल
कभी यहाँ लिए हुए कभी वहाँ लिए हुए
बेदम शाह वारसी