कभी वो दीदा-ए-दिल वा भी छोड़ जाते हैं
कभी ख़याल का रस्ता भी छोड़ जाते हैं
न जाओ घर के शब-अफ़रोज़ रौज़नों पे कि लोग
दिया मकान में जलता भी छोड़ जाते हैं
कुछ ए'तिबार नहीं हम-रहान-ए-सहरा का
ये दूर शहर से तन्हा भी छोड़ जाते हैं
जो बुल-हवस हैं फिर आते हैं तेरे कूचे में
जो बे-ग़रज़ हैं वो दुनिया भी छोड़ जाते हैं
पलटते भी नहीं सरमस्तियों के सैल और फिर
निशानियाँ लब-ए-दरिया भी छोड़ जाते हैं
अब इस से पेशरवान-ए-चमन को क्या मतलब
चमन-नशीनों को जैसा भी छोड़ जाते हैं
बढ़ा भी लेते हैं रहगीर उन की ख़ाक से प्यार
फिर अपनी ख़ाक को रुस्वा भी छोड़ जाते हैं
ग़ज़ल
कभी वो दीदा-ए-दिल वा भी छोड़ जाते हैं
महशर बदायुनी