कभी तुम ने भी ये सोचा कि हम फ़रियाद क्या करते
तुम्हारा दिल दुखा कर अपने दिल को शाद क्या करते
मिरी बर्बादियों पर हँसने वालो ये तो समझा दो
जो मिल जाता तुम्हीं को ये दिल-ए-बर्बाद क्या करते
निगाह-ए-यास में जब नाला-ए-ख़ामोश पिन्हाँ है
तो फिर होंठों को हम शर्मिंदा-ए-फ़र्याद क्या करते
दम-ए-आख़िर भी ऐ दिल ख़ुद-फ़रेबी हिचकियाँ कैसी
जो दानिस्ता भुला बैठे वो तुझ को याद क्या करते
मुझे देखा तो हर इक ने उन्हें जल्लाद ठहराया
उन्हें देखा तो बोले ये भला बेदाद क्या करते
ज़माना जानता है हज़रत-ए-'नख़शब' की ख़ुद-दारी
ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है वो आरज़ू-ए-दाद क्या करते
ग़ज़ल
कभी तुम ने भी ये सोचा कि हम फ़रियाद क्या करते
नख़्शब जार्चवि