कभी तुझ से ऐसा भी याराना था
मुसल्ले से उठना गवारा न था
यूँही इस तरफ़ हम चले आए थे
किसी ने भी हम को पुकारा न था
वो इक मौज थी सर उठाती हुई
कहें कैसे दिल से किनारा न था
चमक जिस की कल शब मज़ा दे गई
कहीं आज की शब वो तारा न था
बहुत ख़ुश हुए आईना देख कर
यहाँ कोई सानी हमारा न था
सहर हो रही थी मगर रात ने
लिबास-ए-उरूसी उतारा न था
ग़ज़ल
कभी तुझ से ऐसा भी याराना था
मोहम्मद अल्वी