कभी तो सोच तिरे सामने नहीं गुज़रे
वो सब समय जो तिरे ध्यान से नहीं गुज़रे
ये और बात कि हूँ उन के दरमियाँ मैं भी
ये वाक़िए किसी तक़रीब से नहीं गुज़रे
उन आइनों में जले हैं हज़ार अक्स-ए-अदम
दवाम-ए-दर्द तिरे रतजगे नहीं गुज़रे
सुपुर्दगी में भी इक रम्ज़-ए-ख़ुद-निगह-दारी
वो मेरे दिल से मिरे वास्ते नहीं गुज़रे
बिखरती लहरों के साथ उन दिनों के तिनके भी थे
जो दिल में बहते हुए रुक गए नहीं गुज़रे
उन्हें हक़ीक़त-ए-दरिया की क्या ख़बर 'अमजद'
जो अपनी रूह की मंजधार से नहीं गुज़रे

ग़ज़ल
कभी तो सोच तिरे सामने नहीं गुज़रे
मजीद अमजद