कभी तो सेहन-ए-अना से निकले कहीं पे दश्त-ए-मलाल आया
हमारी वहशत पे कैसा कैसा उरूज आया ज़वाल आया
अदावतें थीं मोहब्बतें थीं न जाने कितनी ही हसरतें थीं
मगर फिर ऐसा हुआ कि सब कुछ मैं ख़ुद ही दिल से निकाल आया
कभी इबादत कभी इनायत कभी दुआएँ कभी अताएँ
कहीं पे दस्त-ए-तलब बने हम कहीं पे हम तक सवाल आया
गुलों के चेहरे खिले हुए हैं हवा में ख़ुश-बू महक रही है
ये मेरी आँखों ने ख़्वाब देखा कि सैल-ए-हुस्न-ओ-जमाल आया
तमाम रंज ओ मेहन को छोड़ें तुम्हीं को देखें तुम्हीं को सोचें
बड़े ज़माने के ब'अद दिल में ये भूला बिसरा ख़याल आया
ग़ज़ल सुनाऊँ तो दाद पाऊँ मगर मैं तुम से भी क्या छुपाऊँ
तुम्ही ने सारे हुनर सिखाए तुम्ही से रंग-ए-'हिलाल' आया
ग़ज़ल
कभी तो सेहन-ए-अना से निकले कहीं पे दश्त-ए-मलाल आया
हिलाल फ़रीद