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कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी | शाही शायरी
kabhi to samne aa be-libas ho kar bhi

ग़ज़ल

कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी

भवेश दिलशाद

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कभी तो सामने आ बे-लिबास हो कर भी
अभी तो दूर बहुत है तू पास हो कर भी

तेरे गले लगूँ कब तक यूँ एहतियातन मैं
लिपट जा मुझ से कभी बद-हवास हो कर भी

तू एक प्यास है दरिया के भेस में जाना
मगर मैं एक समुंदर हूँ प्यास हो कर भी

तमाम अहल-ए-नज़र सिर्फ़ ढूँढते ही रहे
मुझे दिखाई दिया सूरदास हो कर भी

मुझे ही छू के उठाई थी आग ने ये क़सम
कि ना-उमीद न होगी उदास हो कर भी