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कभी तो रंग-ए-हुस्न-ए-यार देखूँ | शाही शायरी
kabhi to rang-e-husn-e-yar dekhun

ग़ज़ल

कभी तो रंग-ए-हुस्न-ए-यार देखूँ

हमीद कौसर

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कभी तो रंग-ए-हुस्न-ए-यार देखूँ
कहाँ तक दीदा-ए-ख़ूँ-बार देखूँ

वही देखूँ जिसे देखा न जाए
ये मंज़र और कितनी बार देखूँ

पलक झपकूँ तो फिर इन पत्थरों में
कहाँ ऐसे मोहब्बत-ज़ार देखूँ

किसी का ज़ख़्म-ए-दिल देखा न जाए
जिगर हो तो कोई शहकार देखूँ

कमानें टूटती देखी हैं मैं ने
गिनूँ बाहें कि लिपटे हार देखूँ

किसी को इस तरह देखूँ तो रोऊँ
मैं कैसे अपना हाल-ए-ज़ार देखूँ

दिलों के सब घड़े कच्चे हैं 'कौसर'
मैं किस की राह दरिया पार देखूँ