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कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था | शाही शायरी
kabhi to multawi zikr-e-jahan-gardan bhi hona tha

ग़ज़ल

कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था

नश्तर ख़ानक़ाही

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कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था
कभी तो एहतिमाम-ए-सोहबत-ए-याराँ भी होना था

तवक़्क़ो के मुताबिक़ है ये तब्दीली तो हैरत क्या
उसे मुश्किल भी होना था मुझे आसाँ भी होना था

रिया-कारों पे कल तक जिस के दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल थे
उसी जन्नत में जश्न-ए-फ़ित्ना-पर्दाज़ाँ भी होना था

कभी देखा न था यूँ हम ने बाज़ार-ए-वफ़ा वीराँ
तो क्या इस शहर में क़हत-ए-ख़रीदाराँ भी होना था

अभी तक जो किनारे से ब-ज़ाहिर शांत लगता था
उसी दरिया को अब तूफ़ाँ पस-ए-तूफ़ाँ भी होना था

बिल-आख़िर हम भी शब भर जागते रहने से बाज़ आए
दयार-ए-हिज्र में कुछ वस्ल का सामाँ भी होना था

ये ताज़ा बाब-ए-दानाई यहाँ आ कर मैं शश्दर हूँ
जो कल तक थे बहुत दाना उन्हें नादाँ भी होना था