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कभी तो डूब चले हम कभी उभरते हुए | शाही शायरी
kabhi to Dub chale hum kabhi ubharte hue

ग़ज़ल

कभी तो डूब चले हम कभी उभरते हुए

अखिलेश तिवारी

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कभी तो डूब चले हम कभी उभरते हुए
ख़ुद अपनी ज़ात के दरिया को पार करते हुए

यहीं से राह कोई आसमाँ को जाती थी
ख़याल आया हमें सीढ़ियाँ उतरते हुए

अगर वो ख़्वाब है जो आँख में सलामत है
तो फिर ये क्या है जिसे देखता हूँ मरते हुए

सिमट के ख़ुद में मिरा ख़ैर क्या बना होता
हवा के दोश पे था दूर तक बिखरते हुए

नए सफ़र की कहीं इब्तिदा न हो मंज़िल
ये पाँव पूछ रहे हैं थकन से डरते हुए

अभी तो दूर तलक आसमान सूना था
कहाँ से आ गए पंछी उड़ान भरते हुए