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कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी | शाही शायरी
kabhi talash na zae na raegan hogi

ग़ज़ल

कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी

शाद आरफ़ी

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कभी तलाश न ज़ाए न राएगाँ होगी
अगर हुई भी तो अज़-राह-ए-इम्तिहाँ होगी

अगर मुमानियत-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ होगी
तो फिर बहार हमें रू-कश-ए-ख़िज़ाँ होगी

उसूल ये तो नहीं है कि ना-मुराद रहें
फ़ज़ा कभी न कभी हम पे मेहरबाँ होगी

जहान-ए-दर्द में इंसानियत के नाते से
कोई बयान करे मेरी दास्ताँ होगी

मय-ए-नशात-ओ-तरब जिस का हम से व'अदा था
जभी हुई न फ़राहम तो अब कहाँ होगी

बयान-ए-ग़म तो बहुत सहल है प लज़्ज़त-ए-ग़म
सिवा-ए-इज्ज़-ए-बयाँ किस तरह बयाँ होगी

अगर ग़लत है जो कुछ उस ने मुझ से आ के कहा
तो ये जसारत-ए-तहरीफ़-ए-राज़दाँ होगी

पता चला कि बसारत-फ़रेब हैं जल्वे
मैं इस ख़याल में था अक़्ल पासबाँ होगी

वहाँ वहाँ ग़म-ए-हालात रौशनी देंगे
मिरी ग़ज़ल की रसाई जहाँ जहाँ होगी

पियो पियो कि सुबूही से फ़ासला न रहे
नुमूद-ए-सुब्ह की तक़रीब में अज़ाँ होगी

नशेमनों की मुख़ालिफ़ न थी बहार-ए-चमन
मगर शरारत-ए-ईमा-ए-बाग़बाँ होगी

तो क्या कसाफ़त-ए-उर्यानी-ए-ग़ज़ल ऐ 'शाद'
अदब की ख़ाक उड़ाने से कुछ अयाँ होगी