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कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब जैसा है | शाही शायरी
kabhi sukun to kabhi iztirab jaisa hai

ग़ज़ल

कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब जैसा है

अतहर नादिर

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कभी सुकूँ तो कभी इज़्तिराब जैसा है
अब उस का मिलना-मिलाना भी ख़्वाब जैसा है

ये तिश्नगी-ए-मोहब्बत न बुझ सकेगी कभी
ये मत कहो कि ये दरिया सराब जैसा है

ग़मों की धूप में उम्मीद के भी साए हूँ
तू ज़िंदगी में यही इंक़लाब जैसा है

कभी ख़याल से बाहर कभी ख़याल में है
वो एक चेहरा जो दिल में गुलाब जैसा है

कोई मिले न मिले बे-क़रार रहता है
कि दिल का हाल भी इक मौज-ए-आब जैसा है

हमारे दिल में वही है जो सब पे ज़ाहिर है
कि अपना चेहरा खुली इक किताब जैसा है

वो जिस की ज़ात से जीने का लुत्फ़ था 'नादिर'
बिछड़ गया तो ये जीना अज़ाब जैसा है