EN اردو
कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा | शाही शायरी
kabhi soz-e-dil ka gila kiya kabhi lab se shor-e-fughan uTha

ग़ज़ल

कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा

नातिक़ गुलावठी

;

कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा
कोई अहल-ए-ज़ब्त भला बुतो उसे क्या करे जो धुआँ उठा

ये ख़ुदा की शान तो देखिए कि ख़ुदा का नाम ही रह गया
मुझे ताज़ा याद-ए-बुताँ हुई जो हरम से शोर-ए-अज़ाँ उठा

मिरे सब्र ने भी ग़ज़ब किया कि अदू की जान पे बन गई
ये कहाँ की चोट कहाँ लगी ये कहाँ का दर्द कहाँ उठा

जो कभी लगी की ख़बर सुनी तो ग़ज़ब की चोट यहाँ लगी
मुझे सोज़-ए-दिल का गुमाँ हुआ जो किसी के घर से धुआँ उठा

न हुआ इलाज-ए-ग़म-ए-ख़ुदी किसी बरहमन से न शैख़ से
मुझे इस बला से बचाने को जो उठा तो पीर-ए-मुग़ाँ उठा

ये जहान दाम-ए-फ़रेब है जो चले तो देख के चल ज़रा
जो तुझे ख़याल हो दीद का तो समझ के आँख यहाँ उठा

तिरी राह-ए-शौक़ में ज़ोफ़ से कहूँ हाल-ए-'नातिक़'-ए-ज़ार क्या
ये वहीं उठा है जहाँ गिरा ये वहीं गिरा है जहाँ उठा