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कभी शादमाँ कभी पुर-अलम तुम्हें याद हो कि न याद हो | शाही शायरी
kabhi shadman kabhi pur-alam tumhein yaad ho ki na yaad ho

ग़ज़ल

कभी शादमाँ कभी पुर-अलम तुम्हें याद हो कि न याद हो

गौहर उस्मानी

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कभी शादमाँ कभी पुर-अलम तुम्हें याद हो कि न याद हो
वो करम के रूप में इक सितम तुम्हें याद हो कि न याद हो

वही अहद-ए-रस्म-ओ-रह-ए-वफ़ा वो दिल-ओ-नज़र का मोआ'मला
मुझे याद है मिरे मोहतरम तुम्हें याद हो कि न याद हो

वही ग़ुंचा ग़ुन्चा-ओ-गुल-ब-गुल वही रुख़-ब-रुख़ वही दिल-ब-दिल
कभी थे चमन की बहार हम तुम्हें याद हो हो कि न याद हो

वो फ़ुसूँ-तराज़ सी इक नज़र कभी मुंतज़िर कभी मुंतज़िर
वो फ़साना-साज़ शब-ए-अलम तुम्हें याद हो कि न याद हो

कभी वो तबस्सुम-ए-ज़ेर-ए-लब कभी ख़ामुशी से वो बे-सबब
कभी सरख़ुशी कभी आँख नम तुम्हें याद हो कि न याद हो