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कभी साया तो कभी धूप का मंज़र बदले | शाही शायरी
kabhi saya to kabhi dhup ka manzar badle

ग़ज़ल

कभी साया तो कभी धूप का मंज़र बदले

मुख़तार शमीम

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कभी साया तो कभी धूप का मंज़र बदले
दर-ओ-दीवार हुए दश्त-नुमा घर बदले

मौसमों ने तो दरख़्तों को दिए पैराहन
और हवाओं ने उड़ानों के लिए पर बदले

उस ने चट्टान में इक फूल खिलाया तो क्या
पत्थरों को न बदलना था न पत्थर बदले

रेग-ज़ारों में चला क़ाफ़िला-ए-मौज-ए-हयात
तिश्नगी रेत के सहरा में समुंदर बदले

इक तिरे ग़म के उजालों की रिदाएँ मिल जाएँ
ज़िंदगी जिस्म की ये मैली सी चादर बदले