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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से | शाही शायरी
kabhi neki bhi uske ji mein gar aa jae hai mujhse

ग़ज़ल

कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से

मिर्ज़ा ग़ालिब

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कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से

when at times her heart, for me, is filled with piety
she then feels mortified as she recalls her cruelty

ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से

the outcome of my yearning Lord! is opposite although
the closer that I seek to draw, the further does she go

वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से

she is short-tempered, impatient, and lengthy is my tale
beseeching me to be brief, the messenger does quail

उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से

there she is, mistrustful; here I am, frail and weak
she will never care to ask; I will not dare to speak

सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से

Let me now compose myself, Despair-I beg of thee
as fragments of my loved one's thoughts do escape from me

तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन
वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से

though even as I gaze at her, formality aside,
the torment that she's looked upon, I just cannot abide

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाए है मुझ से न ठहरा जाए है मुझ से

at the outset, in love's strife, my feet are wounded, see
no longer can I stand and wait, and nor can I now flee

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से

'tis doomsday, Gaalib, with my rival she chooses to fare
that Heretic, who I would not place even in God's care