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कभी नग़्मा-ए-ग़म-ए-आरज़ू कभी ज़िंदगी की पुकार हम | शाही शायरी
kabhi naghma-e-gham-e-arzu kabhi zindagi ki pukar hum

ग़ज़ल

कभी नग़्मा-ए-ग़म-ए-आरज़ू कभी ज़िंदगी की पुकार हम

पयाम फ़तेहपुरी

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कभी नग़्मा-ए-ग़म-ए-आरज़ू कभी ज़िंदगी की पुकार हम
कभी ख़ाक-ए-कूचा-ए-यार हम कभी शहरयार-ए-बहार हम

कभी चल पड़े तिरी राह में तो हद-ए-जुनूँ से गुज़र गए
तिरे इंतिज़ार में हो गए कभी नक़्श-ए-राह-गुज़ार हम

हमें कुश्तगान-ए-हयात से हैं जुनून-ए-इश्क़ की अज़्मतें
कभी हँस पड़े तह-ए-तेग़ हम कभी झूम उठे सर-ए-दार हम

रहे मुज़्तरिब कभी मुद्दतों ग़म-ए-दहर की कड़ी धूप में
जो सुकूँ मिला है तो सो लिए कभी ज़ेर-ए-गेसू-ए-यार हम

तुझे पा सकें कि न पा सकें कोई ज़िंदगी की लगन तो है
कि ख़ुशी से कैसे उजाड़ दें तिरी आरज़ू का दयार हम

ग़म-ए-ज़िंदगी से शिकस्त क्या रह-ए-आरज़ू में क़दम बढ़ा
तू जो साथ हो तो बदल भी दें ये मिज़ाज-ए-लैल-ओ-नहार हम

कभी पास आ के निगाह कर है ये ज़िंदगी तिरा आइना
तिरा रूप हम तिरा प्यार हम तिरी आरज़ू का सिंगार हम