कभी नाकामियों का अपनी हम मातम नहीं करते
मुक़द्दर में जो ग़म लिक्खे हैं उन का ग़म नहीं करते
तुम्हारे नक़्श-ए-पा पर जो निगाहें अपनी रखते हैं
वो सर दैर-ओ-हरम के सामने भी ख़म नहीं करते
घटाओं को बरसने का इशारा ही नहीं मिलता
वो जब तक ज़ुल्फ़ अपने दोश पर बरहम नहीं करते
मसाइल दौर-ए-हाज़िर के हैं मौज़ूअ-ए-ग़ज़ल कुछ यूँ
कि शाइ'र आज के ज़िक्र-ए-गुल-ओ-शबनम नहीं करते
इसे तहज़ीब-ए-ग़म का नाम अहल-ए-दर्द देते हैं
मिरे आँसू कभी दामन तुम्हारा नम नहीं करते
समझते हैं इसे अहल-ए-नज़र सामान-ए-ख़ुद-बीनी
शिकस्ता आइने का वो कभी मातम नहीं करते
अँधेरों की शिकायत क्या अँधेरे फिर अँधेरे हैं
उजाले भी सितम इस दौर में कुछ कम नहीं करते
मोहब्बत किस से हम करते हैं कुछ बतला नहीं सकते
ये है वो राज़ जिस में दिल को भी महरम नहीं करते
फ़रेबों से कहाँ तक दिल को हम 'आज़ाद' बहलाएँ
सराब-ए-दश्त शिद्दत तिश्नगी की कम नहीं करते

ग़ज़ल
कभी नाकामियों का अपनी हम मातम नहीं करते
आज़ाद गुरदासपुरी