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कभी मुझे कभी ख़ुद को भुला के देखता है | शाही शायरी
kabhi mujhe kabhi KHud ko bhula ke dekhta hai

ग़ज़ल

कभी मुझे कभी ख़ुद को भुला के देखता है

ख़ान रिज़वान

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कभी मुझे कभी ख़ुद को भुला के देखता है
वो अपने आप को भी आज़मा के देखता है

तअ'ल्लुक़ात में अपनी है मस्लहत सब की
कभी वो दूर कभी पास आ के देखता है

मैं जा रहा हूँ बहुत दूर शहर से अपने
वो सुन के बात मिरी मुस्कुरा के देखता है

उसी का हुक्म है तारीक घर को रखने का
मगर चराग़-ए-दिल-ओ-जाँ जला के देखता है

तबाह जिस के लिए ख़ुद को कर लिया मैं ने
वही नज़र से मुझे अब गिरा के देखता है