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कभी मकाँ में कभी रहगुज़र में रहते थे | शाही शायरी
kabhi makan mein kabhi rahguzar mein rahte the

ग़ज़ल

कभी मकाँ में कभी रहगुज़र में रहते थे

ख़्वाज़ा रज़ी हैदर

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कभी मकाँ में कभी रहगुज़र में रहते थे
ये रोज़-ओ-शब तो हमेशा नज़र में रहते थे

हवा की राह में उड़ती थी ज़िंदगी अपनी
मिसाल-ए-मौज कभी हम भँवर में रहते थे

मोहब्बतों में बहुत दिल धड़कता रहता था
अजीब लोग दिल-ए-मो'तबर में रहते थे

हमें भी शौक़ था कुछ तितलियाँ पकड़ने का
तमाम रंग मगर चश्म-ए-तर में रहते थे

ख़िज़ाँ से पहले यहाँ का अजीब मौसम था
समर की तरह परिंदे शजर में रहते थे

गुरेज़-पाई का शिकवा करें तो किस से करें
सफ़र में रह के भी हम लोग घर में रहते थे

हवा के साथ ज़माना बदल गया है 'रज़ी'
हमीं थे वो जो कभी इस नज़र में रहते थे