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कभी किसी को न अहद-ए-वफ़ा का पास हुआ | शाही शायरी
kabhi kisi ko na ahd-e-wafa ka pas hua

ग़ज़ल

कभी किसी को न अहद-ए-वफ़ा का पास हुआ

मुख़्तार हाशमी

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कभी किसी को न अहद-ए-वफ़ा का पास हुआ
सहर का ख़्वाब अंधेरों से रू-शनास हुआ

वो एक लफ़्ज़ जो महदूद-ए-ख़लवत-कुन था
वो लफ़्ज़ फैला तो मंसूर-ए-ख़ुद-शनास हुआ

हमारे बा'द भी लाखों थे डूबने वाले
अब इस को क्या करें दरिया ही ना-सिपास हुआ

करम किसी का हद-ए-ए'तिदाल से बढ़ कर
हमारे जज़्बा-ए-ख़ुद-दार की असास हुआ

तलब में हम-सफ़री की लगन कहाँ फिर भी
पुकार लेंगे अगर कोई आस पास हुआ

उधर था लफ़्ज-ए-वफ़ा जैसे हुक्म-ए-शाहाना
मिरी ज़बान पे आया तो इल्तिमास हुआ

तवक़्क़ुआ'त के जादू का ज़ोर तो टूटा
शिकस्त आज तिलिस्म-ए-उमीद-ओ-यास हुआ

मराहिल-ए-ग़म-ए-हस्ती की उलझनें तौबा
कहीं वफ़ा का कहीं ज़िंदगी का पास हुआ

वो ख़ामुशी थी जो तहसीन-ए-ना-शनास हुई
वो शोर था जो सुकूत-ए-सुख़न-शनास हुआ