EN اردو
कभी ख़ुदा कभी इंसान रोक लेता है | शाही शायरी
kabhi KHuda kabhi insan rok leta hai

ग़ज़ल

कभी ख़ुदा कभी इंसान रोक लेता है

फ़रहत एहसास

;

कभी ख़ुदा कभी इंसान रोक लेता है
मैं जब भी जाता हूँ दरबान रोक लेता है

बग़ैर चाक किए घर से मैं अगर निकलूँ
तो मुझ को मेरा गरेबान रोक लेता है

मैं जब भी जिस्म से इज़्न-ए-विदाअ माँगता हूँ
वो कह के मुझ को मिरी जान रोक लेता है

बस एक जस्त में दुनिया के पार उतर जाऊँ
मगर मुझे मेरा सामान रोक लेता है

बहाना चाहिए मुझ को भी कोई रुकने का
सो वो ब-हीला-ए-आसान रोक लेता है

मैं अपने कुफ़्र से शर्मिंदा हूँ कि उस की तरफ़
मिरे क़दम मिरा ईमान रोक लेता है

फ़रार हो गई होती कभी की रूह मिरी
बस एक जिस्म का एहसान रोक लेता है

कभी तो आएँगे 'एहसास-जी' की बैअत में
हमें यही बस इक इम्कान रोक लेता है