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कभी ख़ुद को छूकर नहीं देखता हूँ | शाही शायरी
kabhi KHud ko chhukar nahin dekhta hun

ग़ज़ल

कभी ख़ुद को छूकर नहीं देखता हूँ

शारिक़ कैफ़ी

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कभी ख़ुद को छूकर नहीं देखता हूँ
ख़ुदा जाने बस वहम में मुब्तला हूँ

कहाँ तक ये रफ़्तार क़ाएम रहेगी
कहीं अब उसे रोकना चाहता हूँ

वो आ कर मना ले तो क्या हाल होगा
ख़फ़ा हो के जब इतना ख़ुश हो रहा हूँ

फ़क़त ये जताता हूँ आवाज़ दे कर
कि मैं भी उसे नाम से जानता हूँ

गली में सब अच्छा ही कहते थे मुझ को
मुझे क्या पता था मैं इतना बुरा हूँ

नहीं ये सफ़र वापसी का नहीं है
उसे ढूँडने अपने घर जा रहा हूँ