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कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है | शाही शायरी
kabhi khole to kabhi zulf ko bikhrae hai

ग़ज़ल

कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है

प्रेम वारबर्टनी

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कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है
ज़िंदगी शाम है और शाम ढली जाए है

हर ख़ुशी मोम की गुड़िया है मुक़द्दस गुड़िया
ताज शोलों का ज़माना जिसे पहनाए है

ख़ामुशी क्या किसी गुम्बद की फ़ज़ा है जिस में
गूँज के मेरी ही आवाज़ पलट आए है

ज़िंदगी पूछे है रो कर किसी बेवा की तरह
चूड़ियाँ कौन मिरे हाथ में पहनाए है

दिल किसी जाम-ए-लबालब की तरह लहरा कर
फिर तिरे दस्त-ए-हिनाई में छलक जाए है

कौन समझे मिरे इख़्लास की अज़्मत को भला
मैं वो दरिया हूँ जो क़तरे में समा जाए है

'प्रेम' देखो तो सही ज़ख़्मों के ज़ेवर की फबन
शाएरी बन के दुल्हन और भी शरमाए है