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कभी कभी ये सूना-पन खल जाता है | शाही शायरी
kabhi kabhi ye suna-pan khal jata hai

ग़ज़ल

कभी कभी ये सूना-पन खल जाता है

उबैद सिद्दीक़ी

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कभी कभी ये सूना-पन खल जाता है
बस इक लम्हा आता है टल जाता है

तुझ से मुझ को बैर सही पर कभी कभी
दुनिया तेरा जादू भी चल जाता है

जान लिया है लेकिन मानना बाक़ी है
तू साया है और साया ढल जाता है

इक दिन मैं अश्कों में यूँ घुल जाऊँगा
जैसे काग़ज़ बारिश में गल जाता है

किस के क़ब्ज़े में है ख़ज़ाना उजालों का
कौन ज़मीं पर तारीकी मल जाता है

इस को तेरी याद कहूँ या अपनी याद
शाम से पहले एक दिया जल जाता है