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कभी कभी तो मोहब्बत की ज़िंदगी के लिए | शाही शायरी
kabhi kabhi to mohabbat ki zindagi ke liye

ग़ज़ल

कभी कभी तो मोहब्बत की ज़िंदगी के लिए

मतीन नियाज़ी

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कभी कभी तो मोहब्बत की ज़िंदगी के लिए
ख़ुद उन को हम ने उभारा है बरहमी के लिए

किया है काम बड़ा ज़िंदगी में अश्कों ने
दिए जलाए शब-ए-ग़म में रौशनी के लिए

वो आज भी हैं उसी तीरगी की मंज़िल में
उजाला माँग के लाए जो रौशनी के लिए

अदा-ए-जौर-ए-मोहब्बत में नागवार नहीं
ख़ुलूस चाहिए ऐ दोस्त बरहमी के लिए

ये दौर वो है कि अपने हैं ग़ैर से बद-तर
कलेजा चाहिए अपनों से दोस्ती के लिए

दलील-ए-अज़्मत-ए-इंसाँ है ये निज़ाम-ए-जहाँ
ज़मीं है गर्दिश-ए-पैहम में आदमी के लिए

हमारे हाल-ए-परेशाँ पे काश एक नज़र
भरे हैं रूप ये हम ने तिरी ख़ुशी के लिए

ये ज़िंदगी भी अजब ज़िंदगी है क्या कहिए
'मतीन' ठोकरें खाते हैं हम ख़ुशी के लिए