कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
मिरे बहे हुए आँसू जबीं पे लाए हैं
न सरगुज़िश्त-ए-सफ़र पूछ मुख़्तसर ये है
कि अपने नक़्श-ए-क़दम हम ने ख़ुद मिटाए हैं
नज़र न तोड़ सकी आँसुओं की चिलमन को
वो रोज़ अगरचे मिरे आईने में आए हैं
उस एक शम्अ से उतरे हैं बाम-ओ-दर के लिबास
उस एक लौ ने बड़े फूल-बन जलाए हैं
ये दोपहर ये ज़मीं पर लिपा हुआ सूरज
कहीं दरख़्त न दीवार-ओ-दर के साए हैं
कली कली में है धरती के दूध की ख़ुशबू
तमाम फूल उसी एक माँ के जाए हैं
नज़र ख़लाओं पे और इंतिज़ार बे-वा'दा
ब-ईं अमल भी वो आँखों में झिलमिलाए हैं
फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
ख़लाओं से सर-ए-काग़ज़ उतार लाए हैं
रिसाला हाथ से रखते न क्यूँ वो शर्मा कर
ग़ज़ल पढ़ी है तो हम सामने भी आए हैं
चले हैं ख़ैर से उन को पुकारने 'दानिश'
मगर वो यूँ तो न आएँगे और न आए हैं
ग़ज़ल
कभी कभी जो वो ग़ुर्बत-कदे में आए हैं
एहसान दानिश