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कभी कभार भी कब साएबाँ किसी ने दिया | शाही शायरी
kabhi kabhaar bhi kab saeban kisi ne diya

ग़ज़ल

कभी कभार भी कब साएबाँ किसी ने दिया

अतहर नासिक

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कभी कभार भी कब साएबाँ किसी ने दिया
न हाथ सर पे ब-जुज़ आसमाँ किसी ने दिया

निसार मैं तिरी यादों की छतरियों पे निसार
न इस तरह का कभी साएबाँ किसी ने दिया

हमारे पाँव भी अपने नहीं हैं और सर भी
ज़मीं कहीं से मिली आसमाँ किसी ने दिया

बिका था कल भी तो इक ज़ेहन चंद सिक्कों में
सनद किसी को मिली इम्तिहाँ किसी ने दिया

उलझ पड़ा था वो मालिक-मकान से इक दिन
फिर इस के बा'द न उस को मकाँ किसी ने दिया

तू इतने ग़म को सँभालेगा किस तरह 'नासिक'
अगर तुझे भी ग़म-ए-बेकराँ किसी ने दिया