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कभी जुदा दो बदन हुए तो दिलों पे ये दो अज़ाब उतरे | शाही शायरी
kabhi juda do badan hue to dilon pe ye do azab utre

ग़ज़ल

कभी जुदा दो बदन हुए तो दिलों पे ये दो अज़ाब उतरे

सोज़ नजीबाबादी

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कभी जुदा दो बदन हुए तो दिलों पे ये दो अज़ाब उतरे
बिछड़ने वाले की याद आई मिलन के आँखों में ख़्वाब उतरे

बढ़ी है फ़िक्र-ए-मआ'श जब से मिरे ख़यालों की वादियों में
न उस के चेहरे का चाँद उभरा न आरिज़ों के गुलाब उतरे

उलझ गया ज़िंदगी के काँटे में इत्तिफ़ाक़न हमारा दामन
ज़मीं के गोले पे सैर करने को हम जो ख़ाना-ख़राब उतरे

जिन्हों ने माँगी उन्हें तो दी ही गई जहाँ में ख़ुशी की दौलत
बग़ैर माँगे भी काहिलों पर फ़लक से ग़म बे-हिसाब उतरे

चली जो आँधी तो हर कली ने झुका के सर को ये इल्तिजा की
चमन के मालिक हमारे रुख़ से अभी न रंग-ए-शबाब उतरे