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कभी जो शब की सियाही से ना-गहाँ गुज़रे | शाही शायरी
kabhi jo shab ki siyahi se na-gahan guzre

ग़ज़ल

कभी जो शब की सियाही से ना-गहाँ गुज़रे

चन्द्रभान ख़याल

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कभी जो शब की सियाही से ना-गहाँ गुज़रे
हम अहल-ए-ज़र्फ़ हर इक सोच पर गराँ गुज़रे

निगाह-ओ-दिल से मिटा दें जो तिश्नगी का अज़ाब
वो आबशार के धारे अभी कहाँ गुज़रे

ग़म आफ़रीं था मुसलसल सुकूत-ए-शहर-ए-हबीब
हम इस गली से मगर फिर भी शादमाँ गुज़रे

शिकस्तगी की तिलिस्मी फ़ज़ा नई तो नहीं
यहाँ तो ऐसे कई दौर इम्तिहाँ गुज़रे

नज़र में शोख़ शबीहें लिए हुए है सहर
अभी न कोई इधर से धुआँ धुआँ गुज़रे

तमाम कोह कशाकश था मेरे सर पे 'ख़याल'
अगरचे और भी दुनिया में सख़्त जाँ गुज़रे