EN اردو
कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई | शाही शायरी
kabhi jo KHak ki taqrib-e-ru-numai hui

ग़ज़ल

कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई

रफ़ी रज़ा

;

कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई
बहुत उड़ेगी वहाँ भी मिरी उड़ाई हुई

ख़ुदा का शुक्र-ए-सुख़न मुझ पे मेहरबान हुआ
बहुत दिनों से थी लुक्नत ज़बाँ में आई हुई

यही है ग़ज़्ज़-ए-बसर ये है देखना मेरा
रहेगी आँख तहय्युर में डबडबाई हुई

तुम्हारा मेरा तअल्लुक़ है जो रहे सो रहे
तुम्हारे हिज्र ने क्यूँ टाँग है अड़ाई हुई

पकड़ लिया गया जैसे कि मैं लगाता हूँ
बुझा रहा था किसी और की लगाई हुई

लहू लहू हुआ सज्दे में दिल अगरचे 'रज़ा'
शब-ए-शिकस्त बड़े ज़ोर की लड़ाई हुई