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कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते | शाही शायरी
kabhi jhuTe sahaare gham mein ras aaya nahin karte

ग़ज़ल

कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते

नुशूर वाहिदी

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कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
ये बादल उड़ के आते हैं मगर साया नहीं करते

यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कि शबनम के लिए दामन तो फैलाया नहीं करते

वो ले लें गोशा-ए-दामन में अपने या फ़लक चुन ले
मिरी आँखों में आँसू बार बार आया नहीं करते

सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
वो यूँ शीशे को हर पत्थर से टकराया नहीं करते

जो क़ीमत जानते हैं गर्द-ए-राह-ए-ज़िंदगानी की
वो ठुकराई हुई दुनिया को ठुकराया नहीं करते

क़दम मय-ख़ाना में रखना भी कार-ए-पुख़्ता-काराँ है
जो पैमाना उठाते हैं वो थर्राया नहीं करते

'नुशूर' अहल-ए-ज़माना बात पूछो तो लरज़ते हैं
वो शाएर हैं जो हक़ कहने से कतराया नहीं करते