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कभी जब दास्तान-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिखता हूँ | शाही शायरी
kabhi jab dastan-e-gardish-e-ayyam likhta hun

ग़ज़ल

कभी जब दास्तान-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिखता हूँ

वलीउल्लाह वली

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कभी जब दास्तान-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिखता हूँ
तो फिर उनवान की सूरत में अपना नाम लिखता हूँ

कभी आग़ाज़ लिखता हूँ कभी अंजाम लिखता हूँ
असीरान-ए-मोहब्बत की जो सुब्ह-ओ-शाम लिखता हूँ

जलाने लगती है जब शिद्दत-ए-तिश्ना-लबी मुझ को
तिरी आँखों को मय-ख़ाना नज़र को जाम लिखता हूँ

किसी पर किस लिए तोहमत रखूँ ख़ाना-ख़राबी की
मैं अपने नाम बर्बादी के सब इल्ज़ाम लिखता हूँ

मोहब्बत के तक़द्दुस को कभी पामाल मत करना
मोहब्बत का यही पैग़ाम सब के नाम लिखता हूँ

मुख़ातब होने लगती है ख़ुद अपनी ज़िंदगी मुझ से
'वली' जब भी मैं शरह-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिखता हूँ