EN اردو
कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला | शाही शायरी
kabhi idhar jo sag-e-ku-e-yar aa nikla

ग़ज़ल

कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला

मियाँ दाद ख़ां सय्याह

;

कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला
गुमाँ हुआ मिरे वीराने में हुमा निकला

रुख़ उस का देख हुआ ज़र्द नय्यर-ए-आज़म
सुनहरे बुर्ज से जिस दम वो मह-लक़ा निकला

वो सुन के पाक मोहब्बत का नाम कहते हैं
हमारी जान को लो ये भी पारसा निकला

हमारे पाँव पड़े आ के आबले हर गाम
कभी जो दश्त-ए-जुनूँ में बरहना-पा निकला

मह-ए-सियाम में आया जो वो हिलाल-अबरू
गुमाँ हुआ ये मुझे चाँद ईद का निकला

जहाँ की सैर तो की तू ने लेकिन ऐ शह-ए-हुस्न
कभी फ़क़ीर के तकिए पे तू न आ निकला

न निकला वहम के मारे वो घर से भी 'सय्याह'
गली से यार के ताबूत जब मिरा निकला