कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला
गुमाँ हुआ मिरे वीराने में हुमा निकला
रुख़ उस का देख हुआ ज़र्द नय्यर-ए-आज़म
सुनहरे बुर्ज से जिस दम वो मह-लक़ा निकला
वो सुन के पाक मोहब्बत का नाम कहते हैं
हमारी जान को लो ये भी पारसा निकला
हमारे पाँव पड़े आ के आबले हर गाम
कभी जो दश्त-ए-जुनूँ में बरहना-पा निकला
मह-ए-सियाम में आया जो वो हिलाल-अबरू
गुमाँ हुआ ये मुझे चाँद ईद का निकला
जहाँ की सैर तो की तू ने लेकिन ऐ शह-ए-हुस्न
कभी फ़क़ीर के तकिए पे तू न आ निकला
न निकला वहम के मारे वो घर से भी 'सय्याह'
गली से यार के ताबूत जब मिरा निकला
ग़ज़ल
कभी इधर जो सग-ए-कू-ए-यार आ निकला
मियाँ दाद ख़ां सय्याह